Saturday, January 7, 2017

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी - Adam Gondvi

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है 
उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है 

इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का 
उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है 

कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले 
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है 

रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी 
जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

Adam Gondvi: तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है 
मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है 

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो 
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है 

लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में 
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है 

तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के 
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में: Adam Gondvi

ग़ज़ल को ले चलो अब गाँव के दिलकश नज़ारों में
मुसल्सल फ़न का दम घुटता है इन अदबी इदारों में

न इन में वो कशिश होगी , न बू होगी , न रआनाई
खिलेंगे फूल बेशक लॉन की लम्बी कतारों में

अदीबो ! ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ 
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक़ के चाँद-तारों में

रहे मुफ़लिस गुज़रते बे-यक़ीनी के तजरबे से
बदल देंगे ये इन महलों की रंगीनी मज़ारों में

कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गई शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्तहारों में.

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे: Adam Gondvi

जो डलहौज़ी न कर पाया वो ये हुक़्क़ाम कर देंगे
कमीशन दो तो हिन्दोस्तान को नीलाम कर देंगे

ये बन्दे-मातरम का गीत गाते हैं सुबह उठकर
मगर बाज़ार में चीज़ों का दुगुना दाम कर देंगे

सदन में घूस देकर बच गई कुर्सी तो देखोगे
वो अगली योजना में घूसखोरी आम कर देंगे

जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में: Adam Gondvi

जो उलझ कर रह गई है फाइलों के जाल में
गाँव तक वो रोशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गई
रमसुधी की झोंपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

जिसकी कीमत कुछ न हो इस भीड़ के माहौल में
ऐसा सिक्का ढालना क्या जिस्म की टकसाल में

Friday, January 6, 2017

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए-- दुष्यन्त कुमार ( Dushyant Kumar)

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी
शर्त थी लेकिन कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गाँव में
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए