प्रिय पाठकों
कैफी आजमी साहब के अल्फाजो मे....
"दौर यह चलता रहे , रंग उछालता रहे
रुप मचलता रहे, जाम बदलता रहे ।
हमे अपने इस चिट्ठे को २ दिनों का अल्प-विराम देना पड़ रहा हैं, मैं अपनी सरजमीं कानपूर कि ओरे कूच कर रह हूँ । वो कहते है ना अंग्रेजी मे I'll be back....
Friday, July 27, 2007
Tuesday, July 24, 2007
एहसास मर चुका हैं और रूह सो गयी है ...
ग़ज़ल आज के परिवेश मे बिल्कुल सही बैठती है । मुझे अफ़सोस हैं कि ग़ज़ल कार का नाम मैं याद नही कर पा रह हूँ पर ग़ज़ल पूरी तरीके से यद् हैं ... यह यकीनन एक बेहतरीन कृति है ... यह कृति " दैनिक आज " अखबार के गणतंत्र दिवस विशेषांक मे प्रकाशित हुई थी ........
एहसास मर चुका है, और रूह सो गयी है ।
अफ़सोस आज दुनिया पत्थर कि हो गयी है ॥
गाडी मे कशमकश है सीटों के वास्ते अब ।
वो पहले आप वाली तहजीब खो गयी हैं ॥
उसने नही उगाया अपनी तरफ से इसको ।
बेवा के घर मे मेहँदी बासिश से हो गयी है ॥
फिर दुनिया कि दौड़ मे मैं रह गया हूँ पीछे ।
फिर मुफलिसी कदम की जंजीर सो गयी है ॥
एहसास मर चुका है, और रूह सो गयी है ।
अफ़सोस आज दुनिया पत्थर कि हो गयी है ॥
गाडी मे कशमकश है सीटों के वास्ते अब ।
वो पहले आप वाली तहजीब खो गयी हैं ॥
उसने नही उगाया अपनी तरफ से इसको ।
बेवा के घर मे मेहँदी बासिश से हो गयी है ॥
फिर दुनिया कि दौड़ मे मैं रह गया हूँ पीछे ।
फिर मुफलिसी कदम की जंजीर सो गयी है ॥
Saturday, July 21, 2007
अगर तलाश करू कोई मिल ही जाएगा मगर ।
अगर तलाश करू कोई मिल ही जाएगा मगर ।
तुम्हारी तरह कौन मुझे चाहेगा ॥
तुम्हे जरूर कोई चाहतों देखेगा ।
मगर वो आखें हमारी कहॉ से लायेगा ॥
ना जाने कब तेरे दिल पर नयी सी दस्तक हो ।
मकान खाली हुआ है तो कोई आयेगा ॥
मैं अपनी राह मे दीवार बन के बैठा हूँ ।
agar वो आया तो किस राह से जाएगा ॥
तुम्हारे साथ ये मौसम फरिश्तों जैसा है ।
तुम्हारे बाद ये मौसम बहुत सतायेगा ॥
शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा हैं..
जनाब बशीर बद्र साहब कि वो ग़ज़ल जो महफिलों जरूर पेश कि जाती है,
लोबान मे चिंगारी जैसे कोई रख जाये ।
यूँ याद तेरी सब भर सीने सुलगती है । ।
खुशरंग परिंदों के लॉट आने के दिन आये ।
दो बिछड़े हुए मिलते है जब बर्फ पिघलती है । ।
यूँ प्यार नही छिपता पलकों को झुकने से ।
आंखों के लिफफो मे तहरीर चमकती हैं । ।
ये शोहरत कि बुलंदी भी पल भर का तमाशा हैं ।
जिस दाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है । ।
लोबान मे चिंगारी जैसे कोई रख जाये ।
यूँ याद तेरी सब भर सीने सुलगती है । ।
खुशरंग परिंदों के लॉट आने के दिन आये ।
दो बिछड़े हुए मिलते है जब बर्फ पिघलती है । ।
यूँ प्यार नही छिपता पलकों को झुकने से ।
आंखों के लिफफो मे तहरीर चमकती हैं । ।
ये शोहरत कि बुलंदी भी पल भर का तमाशा हैं ।
जिस दाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है । ।
बशीर बद्र :कोई मासूम क्यों मेरे लिए
जनाब "बशीर बद्र" ग़ज़ल कि दुनिया बड़ा क़द रखते हैं ,उनकी गजलों मे वो बात है जो गालिब कि गजलों मे हुआ करती थी । जनाब को आधुनिक गालिब के नाम से भी जाना जता है , बशीर साहब कि एक मशहूर ग़ज़ल पेशेखिद्मत हैं ....
हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाये ।
चरागों कि तरह जले आंखें जब शाम हो जाये । ।
अजब हालात थे यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर ।
मोहबत की हवेली जिस तरह नेलाम हो जाये । ।
समंदर के सफ़र मे इस तरह आवाज़ दो हमको ।
हवाये तेज हो और कश्तियों मे शाम हो जाये । ।
मैं खुद एहतियातन उस गली से कम गुजरता हूँ ।
कोई मासूम क्यों मेरे लिए बदनाम हो जाये । ।
मुझे मालूम हैं उनका ठिकाना फिर कहॉ होगा ।
परिंदा आसमान छूने मे जब नाकाम हो जाये । ।
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो ।
ना जाने किस गली मे जिंदगी कि शाम हो जाये । ।
हमारा दिल सवेरे का सुनहरा जाम हो जाये ।
चरागों कि तरह जले आंखें जब शाम हो जाये । ।
अजब हालात थे यूँ दिल का सौदा हो गया आख़िर ।
मोहबत की हवेली जिस तरह नेलाम हो जाये । ।
समंदर के सफ़र मे इस तरह आवाज़ दो हमको ।
हवाये तेज हो और कश्तियों मे शाम हो जाये । ।
मैं खुद एहतियातन उस गली से कम गुजरता हूँ ।
कोई मासूम क्यों मेरे लिए बदनाम हो जाये । ।
मुझे मालूम हैं उनका ठिकाना फिर कहॉ होगा ।
परिंदा आसमान छूने मे जब नाकाम हो जाये । ।
उजाले अपनी यादों के हमारे साथ रहने दो ।
ना जाने किस गली मे जिंदगी कि शाम हो जाये । ।
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