ग़ज़ल आज के परिवेश मे बिल्कुल सही बैठती है । मुझे अफ़सोस हैं कि ग़ज़ल कार का नाम मैं याद नही कर पा रह हूँ पर ग़ज़ल पूरी तरीके से यद् हैं ... यह यकीनन एक बेहतरीन कृति है ... यह कृति " दैनिक आज " अखबार के गणतंत्र दिवस विशेषांक मे प्रकाशित हुई थी ........
एहसास मर चुका है, और रूह सो गयी है ।
अफ़सोस आज दुनिया पत्थर कि हो गयी है ॥
गाडी मे कशमकश है सीटों के वास्ते अब ।
वो पहले आप वाली तहजीब खो गयी हैं ॥
उसने नही उगाया अपनी तरफ से इसको ।
बेवा के घर मे मेहँदी बासिश से हो गयी है ॥
फिर दुनिया कि दौड़ मे मैं रह गया हूँ पीछे ।
फिर मुफलिसी कदम की जंजीर सो गयी है ॥
No comments:
Post a Comment