Saturday, July 21, 2007

शोहरत की बुलंदी भी पल भर का तमाशा हैं..

जनाब बशीर बद्र साहब कि वो ग़ज़ल जो महफिलों जरूर पेश कि जाती है,

लोबान मे चिंगारी जैसे कोई रख जाये ।
यूँ याद तेरी सब भर सीने सुलगती है । ।


खुशरंग परिंदों के लॉट आने के दिन आये ।
दो बिछड़े हुए मिलते है जब बर्फ पिघलती है । ।

यूँ प्यार नही छिपता पलकों को झुकने से ।
आंखों के लिफफो मे तहरीर चमकती हैं । ।

ये शोहरत कि बुलंदी भी पल भर का तमाशा हैं ।
जिस दाल पे बैठे हो वो टूट भी सकती है । ।

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